उत्पाद या प्रोडक्ट बेचने की प्रभावशाली रणनीतियों में से एक रणनीति यह है कि कंपनियां अपने प्रॉडक्ट पर मुफ्त या फ्री जैसे शब्दों का भरपूर इस्तेमाल करती हैं जैसे दुनिया के सबसे बड़े दानदाता वही हों! मसलन अगर आप कोई बिस्किट का पैकिट खरीदते हैं तो बहुत संभव है कि उस पर 25 % या 50 % फ्री लिखा होगा क्योंकि कंपनियां जानती है कि यही वो तरकीब है जिससे ग्राहक की जेब से पैसा इतनी आसानी से निकाला जा सकता है जैसे अपनी बुआ की जेब हो! लगभग हर उत्पाद को बेचने के लिए इस तरीके का प्रयोग भरपूर होता है। एक के साथ एक फ्री या दो के साथ एक फ्री। आजकल 4 या 5 साबुन की टिकियाँ एक साथ आ रही हैं। इनमें 4वीं या पांचवी टिकिया को मुफ्त बताकर चार या पांच साबुन ग्राहक को चिपका दिए जाते हैं जबकि जरूरत सिर्फ एक की होती है! है न कमाल की ट्रिक!
इस बात में पहले भी किसी को शक़ नहीं था कि मुफ़्त का माल कमाल करता है! हमारे देश में तो मुफ़्त का माल और सेवाएं दे-देकर लोग पीएम-सीएम बन गए! जो नहीं बने या बनने का प्रयास कर रहे हैं तो वे भी इसी तरीके से पीएम-सीएम बनेंगे। इसका मतलब हुआ कि मुफ्त का माल यह भी तय करता है कि देश का पीएम या सीएम कौन बनेगा? मुफ़्त माल के लिए लोगों का जुनून ऐसा ही होता है जैसा फिल्मी हीरो-हीरोइन के लिए युवाओं का होता है! अनुभव कहता है कि फ्री मिलने वाले माल की बात ही कुछ और है! तभी तो भंडारे में मिली मुफ़्त की आलू-पूड़ी में जो स्वाद आता है वो घर में बने शाही पनीर में भी नहीं आता!पड़ोसी के फलों के पेड़ों से आम और अमरूद खाने में जो स्वाद है वो खरीद कर खाने में नहीं आता। तभी तो भरी दोपहरी में खेलते-खेलते पास के आम के पेड़ से आम ऐसे साफ कर दिए जाते हैं कि जैसे गधे के सिर सींग गायब हो जाते हैं! शादी या किसी पार्टी से दावत आती है तो उन लोगों की मजबूरी समझी जा सकती है जो कम से कम तीन दिन पहले से ही खाना पीना छोड़ देते हैं ताकि शादी में तब तक खाया जा सके तब तक खाया -पिया नाक तक न आ जाए।
नौकरी चुनते हुए भी उतना ध्यान सैलरी पर नहीं जाता जितना मुफ्त मिलने वाली सुविधाओं जाता है। किसी भी सरकारी नौकरी के लिए दिन-रात एक कर रहे युवाओं से अगर यह पूछा जाए कि वो सरकारी नौकरी क्यों करना चाहते हैं! ज्यादातर युवा पूरी ईमानदारी के साथ बता देतें हैं कि ताकि एक सुंदर सी लड़की से शादी हो जाए! मुफ्त में ढेर सारा दहेज मिले और जीवन भर सरकारी नौकरी के साथ-साथ मुफ्त में मिलने वाली सेवाओं और सुविधाओं का उपभोग किया जा सके! इसका मतलब यह भी है कि हमें मुफ्त में चीज़े और सुविधाएं चाहिए और डंके की चोट पर चाहिए!
जरा याद करें कि कोरोना काल में जब सरकार ने लोगों की जान बचाने के लिए कोरोनारोधी टीके की तीसरी डोज यानी बूस्टर डोज निशु:ल्क लगाने का ऐलान क् किया थाअचानक लोगों में जोश आ गया था! खलबली सी मच गई थी! जैसे सोते हुए से जाग गए थे! लगा कि किसी ने शांत जल में बड़ा सा पत्थर फेंक दिया हो! बूस्टर डोज़ के लिए लोग इतनी तेजी से दौड़े कि कभी दुनिया का सबसे तेज धावक रहा उसेन बोल्ट भी अपने आप को लानतें भेजने लगे! मुफ्त बूस्टर डोज को लेकर लोगों में उतने ही गजब का उत्साह था जितना कि कभी जियो की फ्री सिम के लिए होता था। यह सब फ्री में मिल रही सेवा का कमाला था क्योंकि इससे पहले सरकार ने लोगों से अपील की थी कि थोड़ा शुल्क देकर आप कोरोनारोधी वैक्सीन की तीसरी डोज ले लें! लेकिन लोगों को सरकार की यह सलाह कड़वे करेले से ज्यादा कुछ नहीं लगी थी। लिहाजा 90 फीसदी लोगों ने सरकार की सलाह पर उतना ही ध्यान दिया था जितना सरकार लोगों की सलाह पर देती है! सरकार समझ गयी थी कि जहाँ 10 रुपये की सब्जी के साथ 15 रुपये का धनिया फ्री में लेने का रिवाज हो वहाँ शुल्क देकर टीका लगवाने वाली तरकीब काम नहीं करेगी! लिहाजा उसने तीसरी डोज भी पहली दो डोज की तरह ही फ्री कर दी थी।
हालाँकि यह रहस्य अभी भी बरकरार है कि लोग मुफ़्त की दूसरी चीज़ों और सेवाओं की तरह कभी मुफ़्त की सलाह क्यों नहीं लेते? लेकिन अपनी तो आदत है मुफ़्त में सलाह देने की। इसलिए आप लें न लें! लेकिन मुफ़्त में एक सलाह जरूर दूंगा और वो यह है कि मुफ़्त के चक्कर में कभी-कभी लेने के देने पड़ जाते हैं! कहना यह है कि फ्री का लॉलिपॉप महंगा न पड़ जाए! ध्यान रखिएगा!
-वीरेंद्र सिंह
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