अतीत से प्रेरणा लिए बिना संविधान निर्माण जैसा अत्यंत महत्वपूर्ण कार्य नहीं हो सकता था। फिर चाहे वो प्राचीन भारत के राजा-महाराजाओं की शासन प्रणाली हो या समय-समय पर लागू किए गए अंग्रेज़ों के कानून हों। संविधान निर्माण के दौरान अतीत की शासन-प्रणालियों की अच्छी बातों को महत्व देने में गुरेज नहीं किया गया था। इतना ही नहीं दूसरे देशों के संविधानों से भी बहुत से प्रावधानों को भारत के संविधान में शामिल किया गया है।
हम सब जानते हैं कि अंग्रेज़ भारत में व्यापारी के रूप में आए थे। 31 दिसंबर, 1600 को लंदन के कुछ व्यापारियों की बनाई ईस्ट इंडिया कंपनी ने महारानी एलिजाबेथ शाही चार्टर प्राप्त किया था। चार्टर के तहत ईस्ट इंडिया कंपनी को महज 15 वर्षों की अवधि के लिए भारत और दक्षिण-पूर्व एशिया के कुछ क्षेत्रों के साथ व्यापार करने का एकाधिकार दिया गया था। वहाॆ कंपनी का संविधान,उसकी शक्तियाँ व विशेषाधिकार आदि भी निश्चित थे।
1757 में प्लासी की लड़ाई में बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला के खिलाफ कंपनी को विजय मिली। इसका नतीजा यह हुआ कि भारत में अंग्रेज़ी शासन की नींव पड़ गई। इसके बाद ब्रिटेन की संसद ने भारत में कंपनी के प्रशासन पर अपनी पकड़ बनाने के प्रयास होने लगे। इसकी झलक 1773 के रेग्युलेटिंग एक्ट में दिखाई पड़ती है।
1773 का रेग्युलेटिंग एक्ट:
इस एक्ट के तहत भारत में कंपनी के शासन के लिए एक लिखित संंविधान पेश किया गया था। एक्ट के तहत कंपनी के अधीन क्षेत्रों का प्रशासन कंपनी के व्यापारियों का निजी मामला नहीं रहा था। 1773 एक्ट से भारत में कंपनी के प्रशासन पर ब्रिटिश संसदीय नियंत्रण की शुरुआत हो चुकी थी।
चार्टर एक्ट 1833
संविधान विशेषज्ञ सुभाष कश्यप के अनुसार संविधान निर्माण के धुंधले संकेत इस एक्ट में मिलते हैं। इस एक्ट के तहत सपरिषद गवर्नर-जनरल (Governor-General-in-Conucil) के विधि निर्माण अधिवेशनों और उसके कार्यपालक अधिवेशनों में अंतर करने की कवायद शुरू हुई। भारत में अंग्रेज़ी शासन वाले क्षेत्रों में संपूर्ण सिविल और सैनिक शासन तथा राजस्व की निगरानी, निर्देशन, और निंयत्रण गवर्नर-जनरल आफ इंडिया-इन-कौंसिल (सपरिषद भारतीय गवर्नर जनरल) को सौंप दिया गया। इस तरह गवर्नर जनरल की की सरकार 'भारत सरकार' भारत सरकार और उसकी परिषद 'भारत परिषद' के रूप में जानी गई। विधायी कार्य के लिए परिषद का विस्तार करते हुए तीन सदस्यों के अतिरिक्त एक 'विधि सदस्य' और जोड़ा गया। कुछ प्रतिबंधों के साथ 'गवर्नर-जनरल-आफ इंडिया-इन कौंसिल को भारत में अंग्रेजी शासन के अधीन क्षेत्रों के लिए कानून बनाने की शक्तियाँ मिल गईं।
चार्टर एक्ट 1853
यह अंतिम चार्टर एक्ट था। भारतीय गवर्नर जनरल की परिषद को विधायी प्राधिकरण के रूप में बनाए रखा गया। यह संपूर्ण ब्रिटिश भारत के लिए विधियाँ बना सकती थी। लेकिन इसके स्वरूप और संघटन में बदलाव किया गया था। अब विधायी कार्यों के लिए परिषद का विस्तार कर दिया गया था। इसमें छह विशेष सदस्यों को जोड़ा गया था।हालाँ कि विधियां बनाने के लिए बुलाई बैठकों के अलावा परिषद में बैठने और मतदान करने अधिकार नहीं था।इन सदस्यों को विधाई पार्षद कहा जाता था। परिषद में गवर्नर जनरल, कमांडर -इन-चीफ, मद्रास, बंबई, कलकत्ता और आगरा के स्थानीय शासकों के चार प्रतिनिधियों सहित अब 12 सदस्य हो गए थे।
1858 का एक्ट
1857 के प्रसिद्ध गदर जिसे भारत की आजादी का प्रथम युद्ध माना जाता है, ने भारत में ईस्ट इंडिया की व्यवस्था को तगड़ा झटका दिया था। इस एक्ट के तहत कंपनी के अधीन जितने भी भारतीय क्षेत्र थे वे सब क्राउन में निहित हो गए और उन पर प्रिंसिपल सेक्रेटरी आफ स्टेट के माध्यम से क्राउन द्वारा और उसके नाम से सीधे शासन किया जाने लगा। इस एक्ट के तहत शासन व्यवस्था में कोई ज्यादा परिवर्तन नहीं किया गया था। प्रशासन तंत्र में उतना ही सुधार किया गया था जिससे भारत के प्रशासन पर इंग्लैंड में निरीक्षण और निंयत्रण किया जा सके।
भारतीय परिषद एक्ट, 1861
अपनी पुस्तक "हमारा संविधान" में संविधान विशेषज्ञ सुभाष कश्यप ने लिखा है कि भारत के संवैधानिक इतिहास में 1861 का भारतीय परिषद एक्ट महत्वपूर्ण घटना है। इसके दो मुख्य कारण थे। पहला इस एक्ट के तहत गवर्नर-जनरल को अपनी विस्तारित परिषद में भारतीय जनता के प्रतिनिधियों को नामजद कर उन्हें विधाई कार्य से संबंद्ध करने का अधिकार दिया गया। और दूसरा यह कि इस एक्ट ने गवर्नर-जनरल की परिषद की विधाई शक्तियों का विकेंद्रीयकरण कर दिया गया तथा उन्हें बंबई और मद्रास की सरकारों में निहित कर दिया गया। गवर्नर जनरल की कार्यपालिका का विस्तार हुआ। उसमें पाँचवां सदस्य शामिल किया गया। उस सदस्य का न्यायविद होना जरूरी था। विधाई कार्यों के लिए कम से कम छह और अधिक से अधिक 12 अतिरिक्त सदस्यों को शामिल किया गया। उनमें कम से कम आधे सदस्यों का गैर सरकारी होना जरूरी था। परिषद के गैर सरकारी सदस्यों में भारतीयों को भी शामिल किया जा सकता था। परिणाम स्वरूप भारत में अंग्रेज़ी राज की शुरुआत के बाद पहली बार भारतीयों को 1862 में शामिल किया गया जब गवर्नर जनरल लॉर्ड कैनिंग ने नवगठित विधान परिषद में तीन भारतीयों, पटियाला के महाराजा, बनारस के राजा और सर दिनकर राव को नियुक्त किया गया। इस एक्ट में बहुत सी खामियाँ थीं। यह भारतीयों की आकांक्षाओं को पूरा नहीं करता था। इसने गवर्नर जनरल को सर्वशक्तिमान बना दिया था। गैर सरकारी सदस्य प्रभावी भूमिका अदा नहीं कर सकते थे। कोई प्रश्न नहीं पूछ सकते थे। कोई प्रश्न नहीं पूछ सकते थे। बजट पर बहस नहीं की जा सकती थी।
1885 को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना हुई। ए,ओ,ह्यूम इसके प्रेणता बने और डब्ल्यू. सी. बनर्जी इसके पहले अध्यक्ष बने। 28 से 30 दिसंबर 1885 को हुए अपने पहले अधिवेशन में कांग्रेस ने विधान परषदों के सुधार और उनके विस्तार की मांग की। कांग्रेस अपने हर अधिवेशन यह मांग उठाती रही।
भारतीय परिषद एक्ट, 1892
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेंस के 1889 से 1891तक के अधिवेशनों में स्वीकार किए गए प्रस्तावों के मद्देनजर भारतीय परिषद एक्ट , 1892 लाया गया। इस एक्ट के तहत गवर्नर जनरल की परिषद में अतिरिक्त सदस्यों की संख्या बढ़ाकर 'कम से कम दस तथा अधिक से अधिक सोलह' कर दी गई। परिषद को कुछ शर्तों और प्रतिबंधों के साथ बजट पर विचार-विमर्श करने की इजाजत दी गई। परिषद के सदस्यों को कतिपय शर्तों के अधीन रहते हुए विहित नियमो के अंतर्गत लोकहित के मामलों में प्रश्न पूछने की इजाजत मिल गई।
संविधान विशेषज्ञ सुभाष अपनी पुस्तक हमारा संविधान में लिखते हैं कि1892 का एक्ट निश्चित तौर पर 1961 के एक्ट की तुलना में एक समुन्नत एक्ट था। इसमें विधान परिषद में प्रतिनिधित्व का पुट दे दिया गया। परिषद के कार्यों का विस्तार किया गया। इसके काम पर लगे प्रतिबंधों में कुछ हद तक ढील दी गई। परिषद में 'निर्वाचित' सदस्यों के प्रवेश से एक नए युग का सूत्रपात हुआ।
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