अभी तक यानी पिछली पोस्ट में आपने भारतीय परिषद एक्ट 1892 का बारे में संक्षेप में जाना। अब आगे बढ़ते हैं। इस दौरान भारतीय आदोंलनकारियों की बढ़ती आकांक्षाओं व उनकी स्वाधीनता की मांगों के साथ-साथ कांग्रेस के 1906 के अधिवेशन में कांग्रेस की स्वराज्य की मांग को ध्यान में रखते हुए तत्कालीन सेक्रेटरी ऑफ स्टेट फोर इंडिया, लॉर्ड मार्ले व तत्कालीन वाइसराय लार्ड मिंटो ने मिलकर 1906-1908 के दौरान कुछ संवैधानिक सुधार पेश किए जिन्हें मिंटो-मार्ले सुधार कहा जाता है। इन सुधारों में विधान-परिषद का विस्तार करने , उनकी शक्तियों और कार्यक्ष्रेत्र को बढ़ाने जैसे प्रस्ताव थे। प्रशासी परषदों में भारतीयों कि नियुक्ति करने और जहां पर ऐसी परिषदें नहीं थी वहां पर भी ऐसी परिषदों की स्थापना कर स्थानीय स्वशासन के विकास का प्रस्ताव भी था।
भारतीय परिषद एक्ट, 1909
इस एक्ट के तहत बनाए के विनियमों के अनुसार विधान परिषदों व उनके कार्यक्षेत्र का विस्तार कर उन्हें अधिक प्रभावी व प्रतिनिधिक बनाने के उपबंध किए गए। सदस्यों की सख्या दोगनी या उससे भी ज्यादा की गयी। इस एक्ट की सबसे खतरनाक बात यह थी कि इसमें धर्म के आधार पृथक निर्वाचन क्षेत्र का प्रावधान किया गया। जिसके चलते मुस्लिम संप्रदाय के लिए पृथक निर्वाचक मंडल तथा पृथक प्रतिनिधित्व जैसे धातक सिद्धांत की व्यवस्था की गयी। इस एक्ट के तहत ही अप्रत्यक्ष निर्वाचन के सिद्धांत की भी मान्यता दी गयी थी। नगरपालिकाओं, जिला तथा स्थानीय बोर्ड, विश्वविद्यालयों, जमींदारों, चाय बागान मालिकों, वाणिज्य तथा व्यापार संघ मंडल के लिए पृथक प्रतिनिधित्व की व्यवस्था की गयी थी।
1919 का भारत शासन एक्ट
1919 तक आते-आते देश में स्वतंत्रता संग्राम तेज गति से आगे बढ़ रहा था। अंग्रेज़ों का अहसास हो रहा था कि भारतीयों की आकांक्षाओं को पूरा नहीं किया गया तो उनके लिए बहुत मुश्किल होने वाली थी। भारतीय क्रांतिकारियों ने अंग्रेजों की नाक में दम कर रखा था। 20 अगस्त 1917 को सेक्रेटरी ऑफ स्टेट फोर इंडिया श्री मोंटेग्यू तथा भारत के वाइसराय, लार्ड चेम्सफोर्ड ने हाउस ऑफ कॉमंस में संयुक्त रूप से 'जिम्मेदार सरकार' की स्थापना की धोषणा की। जुलाई 1918 में भारतीय संवैधानिक सुधार-संबंधी रिपोर्ट प्रकाशित की जिसे मोंटफोर्ट रिपोर्ट कहा जाता है।
1919 का भारत शासन एक्ट मोंटेग्यू-चेम्सफोर्ट सुधारों पर आधारित था जिसके मुख्य प्रावधान निम्न थे।
केंद्रीय विधान परिषद का स्थान राज्य परिषद (जिसे उच्च सदन कहा गया) तथा विधान सभा(निम्न सदन) वाले द्विसदनीय विधानमंडल ने ले लिया। हर सदन में निर्वाचित सदस्यों का बहुमत होना आवश्यक था।सदस्यों का चुनाव सीमांकित क्षेत्रों द्वारा प्रत्यक्ष रूप से होना था।निर्वाचन के अहर्ताएं सांप्रदायिक, समूह, निवास और संपत्ति पर आधारित थी। इसी एक्ट में आठ प्रांतों ( जिन्हें गवर्नर प्रांत कहा जाता था) द्वैधशासन या दोहरे शासन की व्यवस्था की गयी। इसका संक्षेप में अर्थ यह था कि आरक्षित विषयों का प्रशासन गवर्नर अपनी कार्यकारिणी द्वारा करता था और हस्तांतरित विषयों का प्रशासन गवर्नर अपनी भारतीय मंत्रियों की सहायता से करता था।
1919 एक्ट के कार्यकरण की जांच पर रिपोर्ट और सुधार के लिए सिफारिशें 10 साल बाद यानी 1929 में देनी थी।
1935 का भारत शासन एक्ट
1919 का भारत शासन एक्ट भारतीय आंदोलनकारियों को पसंद नहीं आया था। इसमें तमाम खामियां थीं। इसमें जिम्मेदार सरकार की मांग को पूरा नहीं किया गया था। द्वैध शासन विफल रहा।गवर्नर का वर्चस्व बना रहा। मंत्री अपनी नीतियों को प्रभावी रूप से लागू नहीं कर पा रहे थे।परिणाम यह हुआ कि भारतीय लोग असंतुष्ट रहे। उनमें असंतोष व्याप्त हो गया। स्वतंत्रता आंदोलन अपने चरम की ओर बढ़ रहा था।
परिणामस्वरूप 2 साल पहले ही भारतीय संवैधानिक आयोग (साइमन कमीशन) 1927 में ही नियुक्त कर दिया। चूंकि इसमें सारे सदस्य अंग्रेज़ थे इसलिए भारतीयों को यह काफी अपमानजनक लगा। भारतीयों ने इसे आत्मनिर्णय के अधिकार की उपेक्षा और ब्रिटिश शासन उदासीनता मानकर साइमन कमीशन को खारिज कर दिया।
इस के बाद ब्रिटिश सरकार ने संवैधानिक सुधारों पर विचार करने के लिए नवंबर 1930 में एक गोलमेज सम्मेलन बुलाया। कुल तीन गोलमेज सम्मेलन हुए। जिसके मार्च 1933 में सरकार ने एक श्वेत पत्र जारी किया था। एक लंबी प्रक्रिया के बाद 19 दिसंबर 1934 में ब्रिटिश संसद में एक विधेयक पेश किया गया जिसे दोनों सदनो ने पास किया। 4 अगस्त 1935 को सम्राट ने अपनी अनुमति दी जो भारत शासन एक्ट 1935 बना।
1935 का भारत शासन अधिनियम में कोई प्रस्तावना नही ंथी। इसकी मुख्य बातें निम्नलिखित हैं।
- 1935 भारत शासन एक्ट में ब्रिटिश प्रांतों और संघ में शामिल होने को तैयार देसी रियासतों की एक 'अखिल भारतीय फेडरेशन या संघ' की परिकल्पना की गयी थी। इसमें ब्रिटिश प्रांत, चीफ कमिश्नर क्षेत्र और स्वेच्छा से शामिल होने वाली देसी रियासतें थीं।
- प्रांतों में द्वैध शासन समाप्त कर दिया गया था। लेकिन केंद्र में द्वैध शासन की स्थापनी की गयी थी।
- इस एक्ट में बर्मा को भारत से अलग कर दिया गया था। उड़ीसा तथा सिंध दो प्रांत बना दिए।
- प्रांतों को एक अलग कानूनी व्यक्तित्व प्रदान किया गया।
- प्रत्येक प्रांत में एक कार्यपालिका तथा एक विधानमंडल का उपबंध रखा गया था। मंत्रिपरिषद को विधानमंडल के प्रति जिम्मेदार बनाया गया।
- शक्तियों का विभाजन केंद्र और राज्यों के बीच किया गया था। लेकिन टकराव की स्थिति में संघीय कानून के प्रभावी होने की व्यवस्थी थी।
- मताधिकार का विस्तार भी किया गया था।
- ब्रिटिश संसद की सर्वोच्चता बनी रही।
- भारतीय परिषद का अंत कर दिया गया।
- सांप्रदायिक निर्वाचन पद्धति का विस्ताक किया गया।
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