श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के अवसर पर गीता सार
'अनुरंजक' के सभी पाठकों कों श्रीकृष्ण जन्माष्टमी की बहुत-बहुत शुभकामनाएं। जय राधा-माधव।
गीता सार
- क्यों व्यर्थ चिंता करते हो? कौन तुम्हें मार सकता है? आत्मा न पैदा होती है, न मरती है।
- जो हुआ वह ्अच्छा हुआ, जो हो हरा है, वह अच्छा हो रहा है। जो होगा वह भी अच्छा होगा। तुम भूत का पश्चाताप न करो। भविष्य की चिंता न करो। वर्तमान चल रहा है।
- तुम्हारा क्या गया, जो तुम रोते हो? तुम क्या लाए थे, जो तुमने खो दिया? तुमने क्या पैदा किया था, जो नाश हो गया? न तुम कुछ लेकर आए, जो लिया यहीं से लिया। जो दिया यहीं पर दिया। जो लिया इसी (भगवान) से लिया। जो दिया, इसी को दिया। खाली हाथ आए। खाली हाथ जाओगे।जो आज तुम्हारा है, कल किसी और का था, परसों किसी और का होगा। तुम इसे अपना समझकर मग्न हो रहे हो। बस यह प्रसन्नता ही तुम्हारे दु:खों का कारण है।
- परिवर्तन संसार का नियम है। जिसे तुम मृत्यु समझते हो, वही तो जीवन है। ्एक क्षण में तुम करोड़ो के स्वामी बन जाते हो, दूसरे क्षण में तुम दरिद्र हो जाते हो। मेरा-तेरा, छोटा-बड़ा, अपना-पराया मन से मिटा दो, विचार से हटा दो, फिर सब तुम्हारा है और तुम सबके हो।
- न यह शरीर तुम्हारा है, न तुम शरीर के हो। यह अग्नि, जल,वायु, पृथ्वी और आकाश से बना है और इन्हीं में मिल जाएगा। परंतु आत्मा स्थिर है। फिर तुम क्या हो? तुम अपने आप को भगवान को अर्पित करो। यही सबसे उत्तम सहारा है। जो इस सहारे को जानता है वह भय, चिंता और शोक से सर्वदा मुक्त रहता है।
- जो कुछ भी तु करता है, उसे भगवान को अर्पण करता चल। इसी से तु सदा आनंद अनुभव करेगा।
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते संङ्गोSस्त्वकर्मणि।।
अर्थ: तुम्हें अपना कर्म करने का अधिकार है, किंतु कर्म के फलों के तुम अधिकारी नहीं हो। तुम न तो कभी अपने आप को अपने कर्मों के फलों का कारण मानो, न ही कर्म न करने में कभी आसक्त होओ।
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्व च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामी स च मे न प्रणश्यति।।
अर्थ: जो मुझे सर्वत्र देखता है और सब कुछ मुझमें देखता है उसके लिए न तो मैं कभी अदृश्य होता हूं और न वह मेरे लिये अदृश्य होता है।
यत्र काले त्वनावृत्तिमावृित्तं चैव यौगिन:।
प्रयाता यान्ति तं कालं वक्ष्यामि भरतर्षभ।।
अर्थ: हे भरतश्रेष्ठ! अब मैं तुम्हें उन विभिन्न कालों को बताऊँगा, जिनमें इस संसार से प्रयाण करने के बाद योगी पुन: आता है अथवा नहीं।
अग्निज्योतिरह: शुक्ल: षण्मासा उत्तरायणम्।
तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जना:।।
अर्थ: जो परब्रह्म के ज्ञाता हैं, वे अग्निदेव के प्रभाव में, प्रकाश में , दिन के शुभ क्षण में, शुक्लपक्ष में, या जब सूर्य उत्तरायण में रहता है, उन छह मासों में इस संसार से शरीर त्याग करने पर उस परब्रह्म को प्राप्त करते हैं।
धूमो रात्रिस्तथा कृष्ण: षण्मासा दक्षिणायनम्।
तत्र चान्द्रमसं ज्योतिर्योगी प्राप्य निवर्तते।।
अर्थ: जो योगी धुएँ, रात्रि, कृष्णपक्ष में या दक्षिणायन रहने के छह महीनों में दिवंगत होता है , वह चंद्रलोक को जाता है, किंतु वहाँ से पुन:पृथ्वी पर चला आता है।
शुक्लकृष्ण गती ह्येते जगत: शाश्वते मते।
एकया यात्यनावृत्तिमन्ययावर्तते पुन:।।
अर्थ: वेदों के मत से इस संसार से प्रयाण करने के दो मार्ग हैं- एक प्रकाश का तथा दूसरा अंधकार का। जब मनुष्य प्रकार के मार्ग से जाता है तो वह वापस नहीं आता, परंतु अंधकार के मार्ग से जाने वाला पुन: लौटकर आता है।
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ।।
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
घर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे-युगे ।।
अर्थ: हे अर्जुन! जब भी और जहाँ भी धर्म का पतन होता है और अधर्म की प्रधानता होने लगती है, तब-तब मैं अवतार लेता हूँ।भक्तों का उद्धार करने , दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ।
प्रस्तुति- वीरेन्द्र सिंह




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